पिता, दो अक्षरों का ये शब्द कहने में जितना आसान है उसकी ज़िम्मेदारियाँ उतनी ही कठिन हैं. एक पिता की अपने परिवार में क्या भूमिका होती है और उसकी छत्र-छाया में उसका परिवार किस तरह पलता-बढ़ता है, चक्रेश अपनी इस नज़्म में वही बयाँ कर रहे हैं. नज़्मालय
वक़्त के साथ-साथ यादों के कुछ मंज़र धुंधले पड़ने लगते हैं, उनमें कुछ ऐसी भी यादें होती हैं जिन्हें हम कभी भुलाना नहीं चाहते. लेकिन न चाहते हुए भी वो कमज़ोर पड़ने लगती हैं. "यादों का डोज़" में एक ऐसी ही याद के बारे में चक्रेश बता रहे हैं कि कैसे वो उस
हम सबके पास अपनी-अपनी यादें हैं. जिनके आने-जाने का कोई वक़्त नहीं होता. कुछ तो ऐसी भी हैं जो फ़िल्मी लगती हैं और कुछ ख़ुद किसी फ़िल्म या उसके गाने से जुडी हुई हैं. ऐसी ही किसी याद का ज़िक्र है चक्रेश की ये नज़्म "फ़िल्मी यादें " जिसका अपना सफ़र और अपना
आख़िरी ख़त चक्रेश की हिन्दी नज़्म है जहाँ वो अपने किसी अज़ीज़ के उस ख़त का ज़िक्र कर रहे हैं जिसमें उससे पहली मुलाक़ात पूरा ब्यौरा मौजूद है.नज़्मालय : प्रकाशाधीन हिन्दी नज़्मों की किताबऐसी और नज़्मों को पढ़ने के लिए जाईये www.nazmalay.com परAakhiri kha